03-10-92  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

ब्राह्मण अर्थात् सदा श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी

परमात्म-पालना में पलने वाले सर्वश्रेष्ठ बच्चों प्रति भाग्यविधाता बापदादा बोले -

आज भाग्यविधाता बापदादा अपने सर्व बच्चों का श्रेष्ठ भाग्य देख हर्षित हो रहे हैं। इतना श्रेष्ठ भाग्य और इतना सहज प्राप्त हो-ऐसा भाग्य सारे कल्प में सिवाए आप ब्राह्मण आत्माओं के और किसी का भी नहीं हैं। सिर्फ आप ब्राह्मण आत्माए इस भाग्य के अधि-कारी हो। यह ब्राह्मण जन्म मिला ही है कल्प पहले के भाग्य अनुसार। जन्म ही श्रेष्ठ भाग्य के आधार पर है। क्योंकि ब्राह्मण जन्म स्वयं भगवान द्वारा होता है। अनादि बाप और आदि ब्रह्मा द्वारा यह अलौकिक जन्म प्राप्त हुआ है। जो जन्म ही भाग्यविधाता द्वारा हुआ है, वह जन्म कितना भाग्यवान हुआ! अपने इस श्रेष्ठ भाग्य को सदा स्मृति में रख हर्षित रहते हो? सदा स्मृति प्रत्यक्ष-स्वरूप में हो, सदा मन में इमर्ज करो। सिर्फ दिमाग में समाया हुआ है-ऐसे नहीं। लेकिन हर चलन और चेहरे में स्मृतिस्वरूप प्रत्यक्ष रूप में स्वयं को अनुभव हो और दूसरों को भी दिखाई दे कि इन्हों की चलन में, चेहरे में श्रेष्ठ भाग्य की लकीर स्पष्ट दिखाई देती है। कितने प्रकार के भाग्य प्राप्त हैं, उसकी लिस्ट सदा मस्तक पर स्पष्ट हो। सिर्फ डायरी में लिस्ट नहीं हो लेकिन मस्तक बीच भाग्य की लकीर चमकती हुई दिखाई दे।

पहला भाग्य-जन्म ही भाग्यविधाता द्वारा हुआ है। दूसरी बात-ऐसा किसी भी आत्मा वा धर्मात्मा, महान आत्मा का भाग्य नहीं जो स्वयं भगवान एक ही बाप भी हो, शिक्षक भी हो और सतगुरू भी हो। सारे कल्प में ऐसा कोई है? एक ही द्वारा बाप के सम्बन्ध से वर्सा प्राप्त है, शिक्षक के रूप से श्रेष्ठ पढ़ाई और पद की प्राप्ति है, सतगुरू के रूप में महामन्त्र और वरदान की प्राप्ति है। वर्से में सर्व खज़ानों का अधिकार प्राप्त किया है। सर्व खज़ाने हैं ना। कोई खज़ाने की कमी है? टीचर्स को कोई कमी है? मकान बड़ा होना चाहिए, जिज्ञासु अच्छे-अच्छे होने चाहिए - यह कमी है? नहीं है। जितनी सेवा निर्विघ्न बढ़ती है तो सेवा के साथ सेवा के साधन सहज और स्वत: बढ़ते ही हैं।

बाप द्वारा वर्सा और श्रेष्ठ पालना मिल रही है। परमात्म पालना कितनी ऊंची बात है! भक्ति में गाते हैं परमात्मा पालनहार है। लेकिन आप भाग्यवान आत्माए हर कदम परमात्म पालना के द्वारा ही अनुभव करते हो। परमात्म श्रीमत ही पालना है। बिना श्रीमत अर्थात् परमात्म-पालना के एक कदम भी नहीं उठा सकते। ऐसी पालना सिर्फ अभी प्राप्त है, सतयुग में भी नहीं मिलेगी। वह देव आत्माओं की पालना है और अभी परमात्म पालना में चल रहे हो। अभी प्रत्यक्ष अनुभव से कह सकते हो कि हमारा पालनहार स्वयं भगवान है। चाहे देश में हो, चाहे विदेश में हो लेकिन हर ब्राह्मण आत्मा फलक से कहेगी कि हमारा पालनहार परम आत्मा है। इतना नशा है! कि कब मर्ज हो जाता है, कब इमर्ज होता है? जन्मते ही बेहद के खज़ानों से भरपूर हो अविनाशी वर्से का अधिकार ले लिया। साथ-साथ जन्मते ही त्रिकालदर्शी सत शिक्षक ने तीनों कालों की पढ़ाई कितनी सहज विधि से पढ़ाई! कितनी श्रेष्ठ पढ़ाई है और पढ़ाने वाला भी कितना श्रेष्ठ है! लेकिन पढ़ाया किन्हों को है? जिन्हों में दुनिया की नाउम्मीद है उन्हों को उम्मीदवार बनाया। न सिर्फ पढ़ाया लेकिन पढ़ाई पढ़ने का लक्ष्य ही है ऊंच ते ऊंच पद प्राप्त करना। परमात्म-पढ़ाई से जो श्रेष्ठ पद प्राप्त कर रहे हो, ऐसा पद सारे वर्ल्ड के ऊंचे ते ऊंचे पद के आगे कितना श्रेष्ठ है! अनादि सृष्टि-चक्र के अन्दर द्वापर से लेकर अभी तक जो भी विनाशी पद प्राप्त हुए हैं, उन्हों में सर्वश्रेष्ठ पद पहले राज्य-पद गाया हुआ है। लेकिन आपके राज्य-पद के आगे वह राज्य-पद क्या है? श्रेष्ठ है? आजकल का श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ पद प्रेजीडेन्ट, प्राइम-मिनिस्टर है। बड़े ते बड़ी पढ़ाई द्वारा फ़िलोसोफर बनेंगे, चेयरमेन, डायरेक्टर आदि बन जायेंगे, बड़े ते बड़े ऑफिसर बन जायेंगे। लेकिन यह सब पद आपके आगे क्या हैं! आपको एक जन्म में जन्म-जन्म के लिए श्रेष्ठ पद प्राप्त होने की परमात्म-गारन्टी है और उस एक जन्म की पढ़ाई द्वारा एक जन्म भी पद प्राप्त कराने की कोई गारन्टी नहीं। आप कितने भाग्यवान हो जो पद भी सर्वश्रेष्ठ और एक जन्म की पढ़ाई और अनेक जन्म पद की प्राप्ति! तो भाग्य है ना! चेहरे से दिखाई देता है? चलन से दिखाई देता है? क्योंकि चाल से मनुष्य के हाल का पता लगता है। ऐसी चाल है जो आपके इतने श्रेष्ठ भाग्य का हाल दिखाई देवे? या अभी साधारण लगते हो? क्या है? साधारणता में महानता दिखाई दे। जब आपके जड़ चित्र अभी तक महानता का अनुभव कराते हैं। अब भी कैसी भी आत्मा को लक्ष्मी-नारायण वा सीता-राम वा देवियाँ बना देते हैं तो साधारण व्यक्ति में भी महानता का अनुभव कर सिर झुकाते हैं ना। जानते भी हैं कि यह वास्तव में नारायण वा राम आदि नहीं हैं, बनावटी हैं, फिर भी उस समय महानता को सिर झुकाते हैं, नमन-पूजन करते हैं। लेकिन आप तो स्वयं चैतन्य देव-देवियों की आत्माए हो। आप चैतन्य आत्माओं से कितनी महानता की अनुभूति होनी चाहिए! होती है? आपके श्रेष्ठ भाग्य को मन से नमस्कार करें, हाथ वा सिर से नहीं। लेकिन मन से आपके भाग्य का अनुभव कर स्वयं भी खुशी में नाचें।

इतनी श्रेष्ठ पढ़ाई की प्राप्ति श्रेष्ठ भाग्य है। लोग पढ़ाई पढ़ते ही हैं इस जीवन के शरीर निर्वाह अर्थ कमाई के लिए जिसको सोर्स आफ इन्कम कहा जाता है। आपकी पढ़ाई द्वारा सोर्स आफ इन्कम कितना है? मालामाल हो ना। आपकी इन्कम का हिसाब क्या है? उनका हिसाब होगा लाखों में, करोड़ों में। लेकिन आपका हिसाब क्या है? आपकी कितनी इन्कम है? कदम में पद्म। तो सारे दिन में कितने कदम उठाते हो और कितने पद्म जमा करते हो? इतनी कमाई और किसकी है? कितना बड़ा भाग्य है आपका! तो ऐसे अपनी पढ़ाई के भाग्य को इमर्ज रूप में अनुभव करो। किसी से पूछते हैं तो कहते हैं-ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी तो हैं, बन तो गये हैं। लेकिन ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी अर्थात् श्रेष्ठ भाग्य की लकीर मस्तक में चमकती दिखाई दे। ऐसे नहीं कि ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी तो हैं लेकिन मिल जायेगा, कुछ तो बन ही जायेंगे, चल तो रहे ही हैं, बन तो गये ही हैं...। बन गये हैं या भाग्य को देखकर के उड़ रहे हैं? इसमें बन तो गये हैं, बन ही रहे हैं, चल ही रहे हैं.... ये बोल किसके हैं? श्रेष्ठ भाग्यवान के ये बोल हैं? ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी अर्थात् मौज से मोहब्बत की जीवन बिताने वाले। ऐसे नहीं कि कभी मजबूरी, कभी मोहब्बत। जब कोई समस्या आती है तो क्या कहते हो? चाहते नहीं हैं लेकिन मजबूर हो गये हैं। भाग्यवान अर्थात् मजबूरी खत्म, मोहब्बत से चलने वाले। चाहते तो हैं लेकिन..... - ऐसी भाषा भाग्यवान ब्राह्मण आत्माओं की नहीं है। भाग्यवान आत्माए मोहब्बत के झूले में मौज में उड़ती हैं। उड़ती कला की मौज में रहती हैं। मजबूरी उनके आगे आ नहीं सकती। समझा? अपना श्रेष्ठ भाग्य मर्ज नहीं रखो, इमर्ज करो।

तीसरी बात-सतगुरू द्वारा क्या भाग्य प्राप्त हुआ? पहले तो महामन्त्र मिला। सतगुरू का महामन्त्र क्या मिला? पवित्र बनो, योगी बनो। जन्मते ही यह महामन्त्र सतगुरू द्वारा प्राप्त हुआ और यही महामन्त्र सर्व प्राप्तियों की चाबी सर्व बच्चों को मिली। ‘‘योगी जीवन, पवित्र जीवन’’ ही सर्व प्राप्तियों का आधार है। इसलिए यह चाबी है। अगर पवित्रता नहीं, योगी जीवन नहीं तो अधिकारी होते हुए भी अधिकार की अनुभूति नहीं कर सकेंगे। इसलिए यह महामन्त्र सर्व खज़ानों के अनुभूति की चाबी है। ऐसी चाबी का महामन्त्र सतगुरू द्वारा सभी को श्रेष्ठ भाग्य में मिला है और साथ-साथ सतगुरू द्वारा वरदान प्राप्त हुए हैं। वरदानों की लिस्ट तो बहुत लम्बी है ना! कितने वरदान मिले हैं? इतने वरदानों का भाग्य प्राप्त है जो वरदानों से ही सारी ब्राह्मण जीवन बिता रहे हो और बिता सकते हो। कितने वरदान हैं, लिस्ट का मालूम है? तो वर्सा भी है, पढ़ाई भी है, महामन्त्र की चाबी और वरदानों की खान भी है। तो कितने भाग्यवान हो! या छिपा कर रखा है, आगे चल अन्त में खोलेंगे? बहुतकाल से भाग्य की अनुभूति करने वाले अन्त में भी पद्मापद्म भाग्यवान प्रत्यक्ष होंगे। अब नहीं तो अन्त में भी नहीं। अभी है तो अन्त में भी है। ऐसे कभी नहीं सोचना कि सम्पूर्ण तो अन्त में बनना है। सम्पूर्णता की जीवन का अनुभव अभी से आरम्भ होगा तब अन्त में प्रत्यक्ष रूप में आयेंगे। अभी स्वयं को अनुभव हो, औरों को अनुभव हो, जो समीप सम्पर्क में आये हैं उन्हों को अनुभव हो और अन्त में विश्व में प्रत्यक्ष होगा। समझा?

बापदादा आज सर्व बच्चों के भाग्य की श्रेष्ठ लकीर को देख रहे थे। जितना बाप ने भाग्य देखा उतना ही बच्चे सदा अनुभव कम करते हैं। भाग्य की खान सभी को प्राप्त है। लेकिन कोई को कार्य में लगाना आता है और कोई को कार्य में लगाना नहीं आता है। जितना लगा सकते उतना नहीं लगाते हैं। मिला सबको एक जैसा है लेकिन खज़ाने को कार्य में लगाकर बाप का खज़ाना सो अपना खज़ाना अनुभव करना-इसमें नम्बरवार हैं। बाप ने नम्बरवार नहीं दिया, दिया सबको नम्बरवन है लेकिन कार्य में लगाना-इसमें अपने आप नम्बर बना दिये हैं। समझा, नम्बर क्यों बने हैं? जितना यूज़ करेंगे, कार्य में लगायेंगे, उतना बढ़ता जायेगा। मर्ज करके रख देंगे तो बढ़ेगा नहीं और स्वयं भी अनुभव नहीं करेंगे तो दूसरों को भी अनुभव नहीं करा सकेंगे। इसलिए चलन और चेहरे में लाओ। समझा, क्या करना है? जो भी नम्बर आवे अच्छा है। चलो, 108 नहीं तो 16000 में ही मिल जाये, कुछ तो बनेंगे। लेकिन 16 हजार की माला सदा नहीं जपी जाती, कहाँ-कहाँ और कभी-कभी जपते हैं। 108 की माला तो सदा जपते रहते हैं। अब मैं कौन? - यह स्वयं जानो। अगर बाप कहेंगे वा और कोई कहेंगे कि आप तो 16000 में आयेंगे तो क्या कहेंगे? मानेंगे? क्वेश्चन-मार्क शुरू हो जायेंगे। इसलिए अपने आपको जानो-मैं कौन? अच्छा!

चारों ओर के सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को, सर्व जन्म से प्राप्त परमात्म-जन्म अधिकारी आत्माओं को, सर्व बाप द्वारा श्रेष्ठ वर्सा और परमात्म-पालना लेने वाले, सत् शिक्षक द्वारा श्रेष्ठ पढ़ाई का श्रेष्ठ पद और श्रेष्ठ कमाई करने वाले, सतगुरू द्वारा महामन्त्र और सर्व वरदान प्राप्त करने वाले-ऐसे अति श्रेष्ठ पद्मापद्म, हर कदम में पद्म जमा करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

यथार्थ सेवा वा यथार्थ याद की निशानी है-निर्विघ्न रहना और निर्विघ्न बनाना

सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य के गीत स्वत: ही मन में बजते रहते हैं? यह अनादि अविनाशी गीत है। इसको बजाना नहीं पड़ता लेकिन स्वत: ही बजता है। सदा यह गीत बजना अर्थात् सदा ही अपने खुशी के खज़ाने को अनुभव करना। सदा खुश रहते हो? ब्राह्मणों का काम ही है खुश रहना और खुशी बाँटना। इसी सेवा में सदा बिज़ी रहते हो? वा कभी भूल भी जाते हो? जब माया आती है फिर क्या करते हो? जितना समय माया रहती है उतना समय खुशी का गीत बन्द हो जाता है। बाप का सदा साथ है तो माया आ नहीं सकती। माया आने के पहले बाप का साथ अलग करके अकेला बनाती है, फिर वार करती है। अगर बाप साथ है तो माया नमस्कार करेगी, वार नहीं करेगी। तो माया को जब अच्छी तरह से जान गये हो कि यह दुश्मन है, तो फिर आने क्यों देते हो? साथ छोड़ देते हो ना, इसलिए माया को आने का दरवाजा मिल जाता है। दरवाजे को डबल लॉक लगाओ, एक लॉक नहीं। आजकल एक लॉक नहीं चलता। तो डबल लॉक है-याद और सेवा। सेवा भी निस्वार्थ सेवा-यही लॉक है। अगर निस्वार्थ सेवा नहीं तो वह लॉक ढीला लॉक हो जाता है, खुल जाता है। याद भी शक्तिशाली चाहिए। साधारण याद है तो भी लॉक नहीं कहेंगे। तो सदा चेक करो-याद तो है लेकिन साधारण याद है या शक्तिशाली याद है? ऐसे ही, सेवा करते हो लेकिन निस्वार्थ सेवा है या कुछ न कुछ स्वार्थ भरा है? सेवा करते हुए भी, याद में रहते हुए भी यदि माया आती है तो जरूर सेवा अथवा याद में कोई कमी है।

सदा खुशी के गीत गाने वाली श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माए हैं-इस स्मृति से आगे बढ़ो। यथार्थ योग वा यथार्थ सेवा-यह निशानी है निर्विघ्न रहना और निर्विघ्न बनाना। निर्विघ्न हो या कभी-कभी विघ्न आता है? फिर कभी पास हो जाते हो, कभी थोड़ा फेल हो जाते हो। कोई भी बात आती है, उसमें अगर किसी भी प्रकार की जरा भी फीलिंग आती है-यह क्यों, यह क्या..... तो फीलिंग आना माना विघ्न। सदैव यह सोचो कि व्यर्थ फीलिंग से परे, फीलिंग-प्रूफ आत्मा बन जायें। तो मायाजीत बन जायेंगे। फिर भी, देखो-बाप के बन गये, बाप का बनना-यह कितनी खुशी की बात है! कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा कि भगवान के इतने समीप सम्बन्ध में आयेंगे! लेकिन साकार में बन गये! तो क्या याद रखेंगे? सदा खुशी के गीत गाने वाले। यह खुशी के गीत कभी भी समाप्त नहीं हो सकते हैं।

टीचर्स का अर्थ ही है अपने फीचर्स से सबको फरिश्ते के फीचर्स अनुभव कराने वाली। ऐसी टीचर्स हो? साधारण रूप नहीं दिखाई दे, सदा फरिश्ता रूप दिखाई दे। क्योंकि टीचर्स निमित्त हो ना। तो जो निमित्त बनते हैं वो जो स्वयं अनुभव करते हैं वह औरों को कराते हैं। यह भी भाग्य है जो निमित्त बने हो। अभी इसी भाग्य को स्वयं अनुभव में बढ़ाओ और दूसरों को अनुभव कराओ। सबसे विशेष बात अनुभवी मूर्त बनो।

ग्रुप नं. 2

‘‘मेरा बाबा’’ स्मृति में लाना अर्थात् सर्व प्राप्तियों के भण्डारे भरपूर होना

सबसे सहज सदा शक्तिशाली रहने की विधि क्या है जिस विधि से सहज और सदा निर्विघ्न भी रह सकते हैं और उड़ती कला का भी अनुभव कर सकते हैं? सबसे सहज विधि है-और कुछ भी भूल जाये लेकिन एक बात कभी नहीं भूले-’’मेरा बाबा।’’ ‘‘मेरा बाबा’’ दिल से मानना-यही सबसे सहज विधि है आगे बढ़ने की। मेरा-मेरा मानने का संस्कार तो बहुत समय का है ही। उसी संस्कार को सिर्फ परिवर्तन करना है। ‘अनेक’ मेरे को ‘एक’  मेरा बाबा उसमें समाना है। एक को याद करना सहज है ना और एक मेरे में सब-कुछ आ जाता है। तो सबसे सहज विधि है-’’मेरा बाबा’’। ‘मेरा’ शब्द ऐसा है जो न चाहते भी याद आती है। ‘मेरे’ को याद नहीं करना पड़ता लेकिन स्वत: याद आती है। भूलने की कोशिश करते भी ‘मेरा’ नहीं भूलता। योग अगर कमजोर होता है तो भी कारण ‘मेरा’ है और योग शक्तिशाली होता है तो उसका भी कारण ‘मेरा’ ही है। ‘‘मेरा बाबा’’-तो योग शक्तिशाली हो जाता है और मेरा सम्बन्ध, मेरा पदार्थ-यह ‘‘अनेक मेरा’’ याद आना अर्थात् योग कमजोर होना। तो क्यों नहीं सहज विधि से पुरूषार्थ में वृद्धि करो।

विधि से ही सिद्धि प्राप्त होती है। रिद्धि-सिद्धि अल्पकाल की होती है लेकिन विधि से सिद्धि जो प्राप्त होती है वह अविनाशी होती है। तो यहाँ रिद्धि-सिद्धि की बात नहीं है लेकिन विधि से सिद्धि प्राप्त करनी है। विधि को अपनाना आता है या मुश्किल लगता है? कम-जोर बनना अर्थात् मुश्किल अनुभव होना। बिना कमजोरी के मुश्किल नहीं होता है। तो कमजोर हो क्या? या माया कभी-कभी कमजोर बना देती है? अगर ‘‘मेरा बाबा’’ याद आता है, तो बाप सर्वशक्तिवान है ना, तो जैसा बाप वैसे बच्चे। ‘‘मेरा बाबा’’ याद आने से अपना मास्टर सर्वशक्तिवान का स्वरूप याद आता है। ‘‘मेरा बाबा’’ कहने से ही बाप कौन है, वह स्मृति में आता है। तो मास्टर सर्वशक्तिवान बनने से न कमजोर बनेंगे, न मुश्किल अनुभव करेंगे। सदा सहज। जितना आगे बढ़ते जायेंगे उतना सहज से सहज अनुभव करते जायेंगे। एक ही बात को सदा स्मृति में रखना-’’मेरा बाबा’’। ‘‘मेरा बाबा’’ स्मृति में आना और सर्व प्राप्तियों के भण्डार अनुभव होना। तो भण्डारे भरपूर हैं ना। सब खज़ाने भरपूर हैं? या कोई हैं, कोई नहीं हैं? ऐसे नहीं-सुख का अनुभव तो होता है लेकिन शान्ति का नहीं होता है, शक्ति का नहीं होता। सर्व खज़ानों के मालिक के बालक हैं। बाप के खज़ाने सो मेरे खज़ाने हैं। तो जितना भरपूर रहेंगे, उतना जो भरपूर चीज होती है वह कभी हलचल में नहीं आती। थोड़ा भी खाली होता है तो हलचल होती है। तो सदा भरपूर अर्थात् सदा अचल। हलचल नहीं। कभी बुद्धि चंचल हो नहीं सकती है। किसी भी विकार के वश होना अर्थात् बुद्धि चंचल होना। अचल हैं और सदा अचल रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

याद से सब कार्य स्वत: सफल होते हैं, कहने वा मांगने की आवश्यकता नहीं

सदा और सहज याद कौन आता है? (बाबा) बाबा भी क्यों याद आता है? (प्यारा है) तो जो प्यारा होता है उसे याद किया नहीं जाता, उसकी याद स्वत: आती है। उससे दिल का प्यार है, सच्चा प्यार है, निस्वार्थ प्यार है। तो सबसे प्यारा कौन? बाप। तो बाप को भुलाना मुश्किल है या याद करना मुश्किल है? जब कोई ऐसी परिस्थिति आती है फिर स्थिति कैसी होती है? फिर याद करना पड़ता है या याद स्वत: आती है, क्या होता है? परिस्थिति का अर्थ ही है - पर-स्थिति। स्व नहीं है, पर है। दूसरे द्वारा आने वाली स्थिति - उसको कहते हैं पर-स्थिति। तो पर-स्थिति शक्तिशाली होती है या स्व-स्थिति शक्तिशाली होती है? लेकिन उस समय क्या होता है? उस समय पर-स्थिति पावरफुल हो जाती है और याद करना पड़ता है। मेरा बाबा, प्यारा बाबा-तो प्यारे को कभी भूल नहीं सकते। और निस्वार्थ प्यार सिवाए बाप के किसी आत्मा से मिल नहीं सकता। आत्मा को कोई न कोई अपने प्रति स्वार्थ रहता है। लेकिन परम आत्मा निस्वार्थ है, क्यों? क्योंकि परम आत्मा दाता है, आत्मा लेकर देने वाली है। आत्मा स्वयं दाता नहीं है लेकिन लेकर दे सकती है और परम आत्मा स्वयं दाता है।

आप कौन हो? मास्टर दाता हो ना। वास्तव में देना अर्थात् बढ़ना। जितना देते हो उतना बढ़ता है। विनाशी खज़ाना देने से कम होता है और अविनाशी खज़ाना देने से बढ़ता है-एक दो, हजार पाओ। तो देना आता है कि सिर्फ लेना आता है? दे कौन सकता है? जो स्वयं भरपूर है। अगर स्वयं में ही कमी है तो दे नहीं सकता। तो मास्टर दाता अर्थात् सदा भरपूर रहने वाले, सम्पन्न रहने वाले। तो सहज याद क्या हुई? ‘‘प्यारा बाबा’’। मतलब से याद नहीं करो। मतलब से याद करने में मुश्किल होता है, प्यार से याद करना सहज होता है। मतलब से याद करना याद नहीं, फरियाद होती है। तो फरियाद करते हो? ऐसा कर देना, ऐसा करो ना, ऐसा होना चाहिए ना....-ऐसे कहते हो? याद से सर्व कार्य स्वत: ही सफल हो जाते हैं, कहने की आवश्यकता नहीं। सफलता जन्मसिद्ध अधिकार है। अधिकार मांगने से नहीं मिलता, स्वत: मिलता है। तो अधिकारी हो या मांगने वाले हो? अधिकारी सदा नशे में रहते हैं-मेरा अधिकार है। मांगना तो बन्द हो गया ना। बाप से भी मांगना नहीं है। यह दे दो, थोड़ी खुशी दे दो, थोड़ी शान्ति दे दो....-ऐसे मांगते हो? बाप का खज़ाना मेरा खज़ाना है। जब मेरा खज़ाना है तो मांगने की क्या दरकार है। तो अधिकारी जीवन का अनुभव करने वाले हो ना। अनेक जन्म भिखारी बने, अभी अधिकारी बने हो। सदा इसी अधिकार के नशे में रहो। परमात्म-प्यार के अनुभवी आत्माए हो। तो सदा इसी अनुभव से सहजयोगी बन उड़ते चलो। अधिकारी आत्मायें स्वप्न में भी मांग नहीं सकतीं। बालक सो मालिक हो। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

एकरस स्थिति बनाने के लिये एक की याद में रहो, ट्रस्टी बनो

सदा एकरस स्थिति में स्थित रहने की सहज विधि क्या है? एक की याद एकरस स्थिति बनाती है। एक बाबा, दूसरा न कोई। क्योंकि एक में सब समाये हुए हैं। जैसे बीज में सब समाया हुआ होता है ना। वृक्ष की एक-एक चीज को याद करना मुश्किल है लेकिन एक बीज को याद करो तो सब सहज है। तो बाप भी बीज है। जिसमें सर्व सम्बन्धों का, सर्व प्राप्तियों का सार समाया हुआ है। एक बाप को याद करना अर्थात् सार-स्वरूप बनना। तो एक बाप, दूसरा न कोई। यह एक की याद एकरस स्थिति बनाती है। ऐसे अनुभव करते हो? या प्रवृत्ति में रहते हो तो दूसरा-तीसरा तो होता है? मेरा बच्चा, मेरा परिवार-यह नहीं रहता है? फिर एक बाप तो नहीं हुआ ना। ‘मेरा’ परिवार है या ‘तेरा’ परिवार है? ट्रस्टी बनकर सम्भालते हो या गृहस्थी बनकर सम्भालते हो? ट्रस्टी अर्थात् तेरा और गृहस्थी अर्थात् मेरा। तो आप कौन हो? मेरा-मेरा मानते क्या मिला? मेरा ये, मेरा ये.... मेरे-मेरे के विस्तार से मिला क्या? कुछ मिला या गंवाया? जितना मेरा-मेरा कहा, उतना ही मेरा कोई नहीं रहा। तो ट्रस्टी जीवन कितनी प्यारी है! सम्भा-लते हुए भी कोई बोझ नहीं, सदा हल्के। देखो, गृहस्थी बन चलने से बोझ उठाते-उठाते क्या हाल हुआ-तन भी गंवाया, मन भी अशान्त किया और सच्चा धन भी गंवा दिया। तन को रोगी बना दिया, मन को अशान्त बना लिया और धन में कोई शक्ति नहीं रही। आज का एक हजार पहले के एक रूपये के बराबर है। तो धन की ताकत चली गई ना। अभी जब बोझ उठाने का भी अनुभव कर लिया और हल्के रहने का भी अनुभव कर लिया, तो अनुभवी कभी धोखा नहीं खाता। कभी भी, किसी भी बात में अगर माया से धोखा खाते तो धोखा खाने की निशानी क्या है? दु:ख की लहर। जरा भी दु:ख की लहर संकल्प में भी आती है तो जरूर कहाँ धोखा खाया है। तो चेक करो कि किस बात में धोखा मिला, क्यों दु:ख की लहर आई? सुखदाता के बच्चे हो। तो सुखदाता के बच्चे को दु:ख की लहर आ सकती है? स्वप्न भी बदल गये। सुख के स्वप्न आयें, खुशी के स्वप्न आयें, सेवा के स्वप्न आयें, मिलन मनाने के स्वप्न आयें। संस्कार भी बदल गये तो स्वप्न भी बदल गये। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

एवररेडी वह है जो नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप है

सदा अपने को सर्व प्राप्ति-स्वरूप श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? क्योंकि प्राप्ति-स्वरूप ही औरों को सर्व प्राप्ति करा सकता है। देने में लेना स्वत: ही समाया है। अभी अपने बहन-भाइयों को भिखारी देख रहम तो आता है ना। जब परमात्म-प्राप्तियों के अधिकारी बन गये तो पा लिया-सदा दिल में यही गीत गाते हो? पाना था सो पा लिया। सम्पन्न बन गये। ऐसे सम्पन्न बन गये या विनाश तक बनेंगे? अगर समय सम्पन्न वा सम्पूर्ण बनाये तो रचना पावरफुल हुई या रचता? तो समय पर नहीं बनना है, समय को समीप लाना है। समय का इन्तज़ार करने वाले नहीं हो। जब पा लिया तो पाने की खुशी में रहने वाले सदा ही एवररेडी रहते हैं। कल भी विनाश हो जाये तो तैयार हो? या थोड़ा टाइम चाहिए? एवररेडी, नष्टोमोहा, स्मृतिस्वरूप - इसमें पास हो? एवररेडी का अर्थ ही है-नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप। या उस समय याद आयेगा कि पता नहीं बच्चे क्या कर रहे होंगे, कहाँ होंगे, छोटे-छोटे पोत्रों का क्या होगा? यहीं विनाश हो जाये तो याद आयेंगे? पति का भी कल्याण हो जाये, पोत्रे का भी कल्याण हो जाये, उन्हों को भी यहाँ ले आयें-याद आयेगा? बिजनेस का क्या होगा, पैसे कहाँ जायेंगे? रास्ते टूट जायें फिर क्या करेंगे? देखना, अचानक पेपर होगा।

सदा न्यारा और प्यारा रहना-यही बाप समान बनना है। जहाँ हैं, जैसे हैं लेकिन न्यारे हैं। यह न्यारापन बाप के प्यार का अनुभव कराता है। जरा भी अपने में या और किसी में भी लगाव न्यारा बनने नहीं देगा। न्यारे और प्यारेपन का अभ्यास नम्बर आगे बढ़ा-येगा। इसका सहज पुरूषार्थ है निमित्त भाव। निमित्त समझने से निमित्त बनाने वाला याद आता है। मेरा परिवार है, मेरा काम है। नहीं, मैं निमित्त हूँ। निमित्त समझने से पेपर में पास हो जायेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं 6

डबल लाइट बनने के लिये बाप की बातें सुनो, बाप के श्रेष्ठ कर्म को फॉलो करो

सभी साकार में वा स्थिति में समीप रहने वाली आत्मायें हो ना। आबू में रहने वाले अर्थात् आबू के बाबा जैसी स्थिति में रहने वाले। जैसे आबू की धरनी से प्यार है, तभी तो समीप रहना चाहते हो ना। ऐसे बाप से भी प्यार है ना। प्यार की निशानी है समान बनना। तो सभी प्यार का रिटर्न देने वाले, प्यार की निशानी दिखाने वाले हो। डॉक्टर्स को बहुत अच्छा चांस मिला है। सभी हल्के हो? रहने में, आने में, खाने में-सबमें हल्के हो? या थोड़ा-थोड़ा भारी हो? जो दिल से साथ रहते हैं, तो साथ की खुशी सब-कुछ भुला देती है। खुशी में भोजन भी न ठण्डा लगता, न गर्म लगता, बहुत प्यारा लगता है। जब बहुत खुशी का मौका होता है तो ठण्डा खाया या गर्म खाया-याद रहता है? खुशी से ही पेट भर जाता है! तो साथ रहने वाले अर्थात् खुशी से भरपूर रहने वाले। ऐसे हैं ना! यह भी ड्रामा की बहुत श्रेष्ठ भावी बनी हुई थी जो आप सबको गोल्डन चांस मिला। यह डबल विदेशी हैं और आप डबल सर्विसेबल हो। डबल सेवा करते हो या सिर्फ दवाई देते हो? एक ही समय पर डबल सेवा करने के निमित्त हो। डबल सेवाधारी, डबल स्नेह और सहयोग के पात्र बनते हैं। अच्छा है। समीप रहने का-यह भी चांस अच्छा मिलता है। समीप रहने वालों से यह पूछने की आवश्य-कता है क्या कि खुश हो, ठीक हो? मधुबन निवासी बनना अर्थात् सदा खुशी में उड़ना। तो हॉस्पिटल का काम कैसे चल रहा है? पंख लग गये हैं ना। उमंग-उत्साह के पंखों से उड़ रहे हैं।

डबल विदेशी आत्माओं की सदा उड़ती कला है ना? या कभी चढ़ती कला, कभी चलती कला और कभी उड़ती कला-क्या कहेंगे? सदा उड़ती कला। क्योंकि समय उड़ती कला से चल रहा है। अगर आप उड़ती कला से आगे नहीं बढ़ेंगे तो क्या रिजल्ट होगी? तो समय के पहले तैयार होने वाले हो ना। समय का इंतजार नहीं करना है लेकिन समय आप श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान कर रहा है। डबल विदेशी नाम है और चाल है डबल लाइट। बोझ उठाने का अनुभव 63 जन्म किया। अभी डबल लाइट रहने के अनुभव का यह एक ब्राह्मण जन्म है। तो अभी सदा डबल लाइट रहो। डॉक्टर्स भी डबल लाइट हैं ना। या कुछ बोझ है? देखने का, सुनने का कुछ बोझ है? या कभी-कभी थोड़ा बोझ हो जाता है? इसलिये बापदादा कहते हैं-जिस बात में कोई रस नहीं हो, कोई सम्बन्ध नहीं हो, तो वह सुनते हुए नहीं सुनो, देखते हुए नहीं देखो। देखते हुए, सुनते हुए सोचो नहीं। सोचो तो क्या सोचो? बाप की बातें। सुनो तो बाप की बातें, देखो तो बाप के श्रेष्ठ कर्म और फॉलो करने वालों के श्रेष्ठ कर्म। यही विधि है सदा डबल लाइट रहने की। डॉक्टर्स का काम ही है-शरीर में आने वाली व्यर्थ चीजों को खत्म करना। डॉक्टर्स की विशेषता है-व्यर्थ को समाप्त करना और समर्थ बनाना। रूहानियत में भी यही काम है और स्थूल में भी यही काम है। बाकी, सेवा अच्छी कर रहे हो और रिजल्ट अच्छी है और अच्छे ते अच्छी होनी ही है। प्यार से सेवा कर रहे हो। प्यार की दवाई पहले देते हो, पीछे और दवाई देते हो ना। तो आधा काम तो प्यार ही कर लेता है। अच्छा!

आबू निवासी भी लक्की हैं। समय पर आना नहीं पड़ेगा, हैं ही यहाँ। सभी डॉक्टर्स को अपनी सेवा पसन्द है? या थोड़ा और कहाँ चक्कर लगाने चाहते हो? बड़े शहरों में बड़ी सेवा हो जायेगी-यह नहीं समझते हो? खुश हो? सब अच्छे हैं। अच्छा!